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पद्म पुरस्कार : बढ़लो जाय रहलो अपेक्षा – घटतें जाय रहलो साख ! | Angika Samvad | Kundan Amitabh

पिछले साल जून माह में केंद्र सरकार ने पद्म पुरस्कारों को 'जनता के पद्म' में बदलने हेतु अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते जिस तरह सभी नागरिकों से प्रतिष्ठित पद्म सम्मानों के लिए नॉमिनेशन और सेल्फ नॉमिनेशन सहित सिफारिशें करने का आग्रह किया था । नतीजतन पद्म पुरस्कारों के पारंपरिक साख के प्रति देश में जहाँ एक सकारात्मक आकर्षण का माहौल निर्मित हुआ था । वहीं गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर की गई पुरस्कारों की घोषणा के पश्चात पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और माकपा के वरिष्ठ नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य, के अलावा एक बंगाली गायिका संध्या मुखर्जी एवं बंगाल के ही तबला वादक अनिंद्य चटर्जी द्वारा पद्म पुरस्कारों को ठुकराये जाने से इसकी साख पर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं । 

पद्म पुरस्कारों को लेकर जनता की अपेक्षा

पद्म पुरस्कारों को प्रदान करने का मूल आशय चयनित व्यक्ति के किसी विशिष्ट कार्य को मान्यता प्रदान करना है जो किसी जाति, लिंग, पद, व्यवसाय के भेदभाव के बिना सभी प्रकार की गतिविधियों या क्षेत्रों जैसे कि कला, साहित्य, शिक्षा खेल-कूद, चिकित्सा, समाज सेवा, विज्ञान, इंजीनियरिंग,लोक कार्य, सिविल सेवा, व्यापार, उद्योग आदि में विशिष्ट और असाधारण उपलब्धियों / सेवाओं के लिए प्रदान किए जाते हैं ।

अपनी उपलब्धियों को लेकर कुछ शख्शियत सरकार से यह अपेक्षा करने लगते हैं कि उनकी उपलब्धियों के हासिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें पद्म पुरस्कारों से नवाज दिए जाएँ । ऐसी शख्शियतों को जब कई बर्षों बाद सम्मानित करने की घोषणा होती है तो उन्हें लगता है इसमें काफी विलंब हो चुका है। कुछ शख्शियत ऐसे भी होते हैं जिनकी उपलब्धियों के सामने पद्म पुरस्कार बौने साबित होते हैं । इन सब चीजों का नतीजा यह होता है कि काफी विलंब से पुरस्कारों की घोषणा के वक्त उनमें उत्साह का स्तर काफी कम हो जाता है । कई तो सम्मान को ठुकराने से भी नहीं चूकते ।

पार्श्व गायक सोनू निगम ने इस साल पद्म श्री से सम्मानित किए जाने पर अपनी प्रतिक्रिया में खुशी जाहिर करते कहा है कि वे तो पिछले पच्चीस साल से इसका इंतजार कर रहे थे। वे कहते हैं कि यदि आप ये पुरस्कार प्राप्त करते हैं, तो आपको उनके बारे में घमंड नहीं करना चाहिए, और जब आप उन्हें प्राप्त नहीं करते हैं, तो आपको निराश नहीं होना चाहिए।

उसी तरह शहनाई वादक उस्ताद विलायत खाँ का भी उदाहरण है जिनकी प्रतिभा को पहचानने में सरकार को कई दशक लग गए। उन्हें 1964ई., 1968 ई., 2000ई. में क्रमशः पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था, उन्होंने इन सम्मानों को यह कहते ठुकरा दिया था कि पुरस्कार समिति संगीत की प्रतिभा को मापने की योग्यता नहीं रखता । बाद में बर्ष 2001 ई. में उन्हें भारत रत्न से नवाजा गया था ।

आमजनों की सरकार से यह भी अपेक्षा रहती है कि सम्मान के चयन के बहाने वह अपना कोई राजनीतिक हित नहीं साधेगी । परंतु अपेक्षाकृत कमजोर पात्र व कुछ विपक्षी पार्टियों के नेताओं के चयन के वक्त जनता को लगता है कि सरकार ऐसा ही कुछ कर रही है ।

पद्म पुरस्कारों की निष्पक्षता पर उठते सवाल

पारंपरिक तौर पर आमजनों में पद्म पुरस्कारों को लेकर यह धारणा है कि इसके लिए चयनित व्यक्तियों की उपलब्धियों में लोक सेवा के तत्व तो होने ही चाहियें, साथ ही वे अपने क्षेत्र में उत्कृष्टता नहीं अपितु उत्कृष्टता से भी कुछ अधिक हासिल कर चुके हों ।

परंतु इस बार बिहार के शैवाल गुप्त को पद्मश्री का सम्मान मरणोपरांत साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में दिया गया है । क्या बिहार में साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में कोई और बेहतर विकल्प का चयन नहीं हो सकता था? ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे जनमानस में यह धारणा बनी है कि राजनितिक पहुँच हो तो बिना कुछ उपलब्धि के ही पद्म पुरस्कारों को हासिल किया जा सकता है । इस तरह से पद्म पुरस्कारों की साख को नुकसान पहुँचने का भ्रम पैदा होता है । फिर इसकी निष्पक्षता पर भी सवाल पैदा होने लगते हैं ।

फिर जब हम यह देखते हैं कि इसी चयन प्रक्रिया के तहत कुछ ऐसे लोगों को भी पद्म पुरस्कार मिले हैं, जो अब तक गुमनामी के अँधेरे में जी रहे थे तो यह भ्रम सहज ही दूर हो जाता है ।

इधर कई बर्षों से कई ऐसे लोगों को यह सम्मान दिया गया है, जो न तो अपनी सिफारिश खुद कर सकते थे और न ही किसी से करवा सकते थे।

ये हैं 'जनता के पद्म'

मसलन झारखंड की छुटनी देवी - 21 वर्षों से मायके में रह कर डायन प्रथा के खिलाफ जागरूकता अभियान चलातीं रहीं । बिहार के रामचंद्र मांझी - एक भोजपुरी लोक नर्तक और थिएटर कलाकार हैं जो नाच कलाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । कर्नाटक के हरेकाला हजब्बा - खुद अनपढ़ रहते हुए भी फुटपाथ पर संतरे बेचकर अर्जित अपने जीवन भर की कमाई से अपने गांव में पहली पाठशाला खोली । अयोध्या के मोहम्मद शरीफ - 25 हजार से अधिक लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार किया। लद्दाख के चुल्टिम चोनजोर - करगिल क्षेत्र के एक गांव तक 38 किमी सड़क अकेले दम बनाकर खड़ी कर दी। कर्नाटक की आदिवासी महिला तुलसी गौड़ा - अकेले ही 30 हजार से ज्यादा वृक्षारोपण पूरे किए। राजस्थान के हिम्मताराम भांमूजी - जोधपुर, बाड़मेर, सीकर, जैसलमेर और नागौर आदि शहरों में हजारों पेड़ लगाये । महाराष्ट्र की राहीबाई पोपरे -‘बीजमाता’ या सीड मदर नाम से प्रसिद्ध आदिवासी महिला, जो देसी बीज खुद तैयार करती हैं, जिसके उपयोग से उस इलाके के किसान बेहतर आमदनी प्राप्त कर रहे हैं । ओड़ीसा के कोसली भाषा के कवि एवम लेखक हलधर नाग - जो 'लोककवि रत्न' के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिनके बारे में विशेष बात यह है कि उन्हें अपनी लिखी सारी कविताएँ और 20 महाकाव्य कण्ठस्थ हैं। इन सबों को हाल के बर्षों में पद्मश्री से पुरस्कृत किए गए हैं ।

इसके बावजूद पद्म पुरस्कारों की निष्पक्षता पर सवाल उठते आए हैं । इस पर पहला सवाल पचास के दशक में तत्कालीन शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद ने उठाया था जब उन्होंने ख़ुद को भारत रत्न दिए जाने के फ़ैसले को अस्वीकार करते हुए कहा था कि पुरस्कार चुनने वाले लोगों को ख़ुद को पुरस्कार देने का अधिकार नहीं है ।

पद्म पुरस्कार ठुकराने व लौटाने वाले पूर्ववर्ती शख्स

पुरस्कार लौटाने की शुरुआत सबसे पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी जब उन्होंने जालियाँवाला बाग हत्याकांड के विरुद्ध अपनी नाइटहुड यानी सर की उपाधि वापस कर दी थी।

जहाँ तक पद्म पुरस्कारों की बात है, तो पहले भी कई लोगों ने सरकार के किसी क़दम के ख़िलाफ़ या तो इसे वापस किया है या इसे लेने से इनकार किया है ।

प्रसिद्ध बंगाली थिएटर शिशिरकुमार भादुड़ी ने केंद्र सरकार द्वारा थिएटर की उपेक्षा के विरोध में 1959 में पद्म पुरस्कार से इनकार कर दिया था । उस्ताद विलायत खाँ ने, 1964ई., 1968 ई., 2000ई. में क्रमशः पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, बंगाली नाटककार बादल सरकार ने 1972 में पद्मश्री, बांग्ला गायक तारापद चक्रवर्ती ने व्यक्तिगत कारणों का हवाला देते हुए 1974 में पद्मश्री, उसी तरह हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने आपातकाल का विरोध करते हुए 1975 ई. में पद्मश्री, अंग्रेजी के प्रसिद्ध स्तंभकार खुशवंत सिंह ने ऑपरेशन ब्लू स्टार का विरोध करते 1984 ई. में पद्मभूषण, बंगाली गायक और संगीत निर्देशक हेमंत मुखर्जी ने 1988 ई. में पद्मश्री, निखिल चक्रवर्ती ने पत्रकारों को सरकार से दूरी बनाकर चलने के सिद्धांत पर कायम रहने के लिए 1990 ई. में पद्मभूषण, उसी तरह रोमिला थापर ने सिर्फ अकादमिक संस्थाओं से पुरस्कार लेने की पक्षधर होने की वजह से 1992 ई. व 2005 ई. में पद्मभूषण, के. सुब्रमण्यम ने 1999 ई. में पद्मभूषण, नाट्यकला के क्षेत्र के बड़े नाम रतन थियम ने नगा युद्ध विराम को बढ़ाए जाने के विरोध में 2001 में पद्मश्री, सितारा देवी ने 2002 ई. में पद्मभूषण, एस. जानकी ने 2013 ई. में पद्मभूषण, जस्टिस जे एस वर्मा ने 2013 ई. में पद्मभूषण, सलीम खान ने 2015 ई. में पद्मश्री के पुरस्कार ठुकरा दिए थे ।

 
जो भी हो, पद्म पुरस्कारों का ठुकराकर विरोध करने का ये ढंग सरकार नहीं, देश व पुरस्कारों का निरादर करना है । निःसंदेह, इससे इन सर्वोच्च पुरस्कारों के राजनीतिकरण के ख़तरे भी बढ़ जाते हैं ।

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