Angika स्मृति-शेष | प्रो.(डॉ.) परशुराम राय "प्रेम प्रभाकर" | न जाने वह आदमी इतनी विनम्रता को कहाँ से उठा लाया था | by डॉ. अमरेन्द्र | Angika.com
दुनिया रोती धोती रहती जिसको जाना है, जाता है। लेकिन कोई अच्छा आदमी जाकर भी कहाँ जाता है। वह तो साथ रहता है, हमारी यादों में, हर अच्छे काम में साथ हो जाता है कुछ बीती बातों की याद दिला कर, कभी अपने मृदुल स्वभाव से, तो कभी अपनी मीठी असहमति से ।
मैंने अपने जीवन में अपने मित्र प्रेम प्रभाकर जैसा काई और मित्र नहीं पाया, जिन्हें कम से कम उबलते हुए तो कभी नहीं देखा । न जाने वह आदमी इतनी विनम्रता को कहाँ से उठा लाया था । बोलने में ही नहीं, उनके व्यवहार में भी जलतरंग की लय थी, किसी पहाड़ी धुन का संगीत, उनके आचरण में कभी भी बाढ़ का फेनिल वेग नहीं देखा, वह जो कुछ थे, शरत का स्थिर पारदर्शी जल ।
मैंने अपने जीवन में अपने मित्र प्रेम प्रभाकर जैसा काई और मित्र नहीं पाया, जिन्हें कम से कम उबलते हुए तो कभी नहीं देखा । न जाने वह आदमी इतनी विनम्रता को कहाँ से उठा लाया था । बोलने में ही नहीं, उनके व्यवहार में भी जलतरंग की लय थी, किसी पहाड़ी धुन का संगीत, उनके आचरण में कभी भी बाढ़ का फेनिल वेग नहीं देखा, वह जो कुछ थे, शरत का स्थिर पारदर्शी जल ।
प्रो.(डॉ.) परशुराम राय "प्रेम प्रभाकर" |
मैं यह नहीं कहता कि प्रभाकर से बढ़िया कोई प्रोफेसर नहीं हो सकता, हिन्दी के ताजा साहित्य का उनसे बेहतर कोई जानकारी रखनेवाला नहीं हो सकता, भागलपुर में प्रभाकर से बडा कोई पत्रकार भी नहीं है, लेकिन यह तो तय हे कि डॉ प्रेम प्रभाकर जिस श्रम और लग्न के साथ अंगचम्पा का संपादन कर रहे थे और हिन्दी पञकारिता की श्रेष्ठता को बचाए हुए थे, छात्रों के प्रति कुछ ऐसे ही शीतल स्वभाव से मिलते, जैसे, जेठ से आषाढ़ मिलता है, तो लगता है कि प्रेम प्रभाकर के जाने से गुरुकुल की वह संस्कृति कुछ कमजोर हो जायेगी, जिसे वह नये सिरे से स्थापित करने पर तुले थे।
विश्वविद्यालय के कार्यों की व्यस्तता के बीच भी उन्होंने पठन पाठन से कभी आंखें नहीं फेरी, बड़े लेखकों को पढ़ने की चाहत में नये लोगों के साहित्य को अपनी पीठ नहीं दिखाई । उनके लिए साहित्य से बड़ा लेखक नहीं था ।
डॉ प्रेम प्रभाकर का हमारे बीच से हठात यूं चले जाने का अर्थ है, कि आँखें अब एक ऐसे चेहरे को कभी नहीं देख सकेंगी, जो विषम परिस्थितियों के वावजूद कभी उदास नहीं दिखीं, न अपनी आँखों पर मन की परेशानियों या विरोध की छाया को ही उभरने दिया।
कल को दोस्त और मिलेंगे, बनेंगे, टूटेंगे, लेकिन प्रेम प्रभाकर जैसा मित्र कभी नहीं मिलेगा और यही बात बेहद डरा जाती है, बहुत उदास कर जाती है। ऐसा नहीं कि यह सिर्फ मैं ही कह रहा हूँ, मेरे जैसे उनके सैकड़ों मित्र यही कह रहे होंगे !
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